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ना हम है हारे – मुकेश तिवारी

सबेरा रोज चूमता  रहा  है, खिड़क़ी चौबारे,

फिर भी ना ढली शाम और ना हम है हारे।

 

मझदार  की  तासीर  थी  देती  रही  थपेड़े,

बुलबुलें बन  कर  थाम लियें  हमनें किनारे।

 

कभी  जुझे  चट्टानों  से  कभी सागर मे गिरे,

कभी खुद मेँ चिराग पाया कभी पाये सितारे।

 

उदय को  नहीँ भूले , उद्गम  सदा  याद रखा,

कभी बनें  बूँद  बारिश की कभी बनें फव्वारेँ।

 

सबेरा रोज  चूमता  रहा है , खिड़क़ी चौबारे,

फिर भी  ना  ढली  शाम  और ना हम है हारे।

 

मझदार   की   तासीर   थी  देती  रही  थपेड़े,

बुलबुलें  बन  कर  थाम  लियें  हमनें किनारे।

– मुकेश तिवारी -“वशिष्ठ”  इन्दौर मध्यप्रदेश!

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