वह माँ ही तो हैं
जिसकी आँचल तले
अगणित खुशियाँ पाई हैं।
जिसकी ममता से
प्रेम की परिभाषा सीखा है
एक अटूट प्रेम जो अमिट हैं।
वह तो माँ ही हैं
जिसनें मुझे जीवन दिया
और जीवन जीने के सलीक़े
मेरा तो अस्तित्व नही था।
कभी लाड़-प्यार कभी डाँट-डपट
कभी चुम्बन करती व सहलाती
खुद भूखा रहकर मुझे खिलाती।
वह माँ ही तो हैं
जिसके पद-चिन्हों पर
कदम रख चलना सीखा
जिसके आँगुली पकड़
कई सफ़र कर लिए।
फिर क्यों आज देखता हूँ
कई माँ को रोते हुए अनवरत
क्यों हो जाती है घर से बेघर।
उसके परवरिश में
न जाने कौन सी कमी रह गयी
जो दर-ब-दर खा रही हैं
असहय ठोकरें।
कभी उसके सायें में रहते थे
आज बृद्धाश्रम में पड़ी है अमुक
चार दाने के लिए
पीस रही है गुलामी की चक्की।
जिसनें हृदय से लगा रखा था
कई रातें जगकर
एक दिन रौशन करेगा
मेरा चिराग़।
– समीर सिंह राठौड़, :बंशीपुर, बांका, बिहार