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पर्यावरण और वन – शिव नारायण त्रिपाठी

वन उजाड़ हो रहे आज हैं,

राही को छांव नहीं मिलती।

पशु-पक्षियों के कलरव से,

कर्कश-कटु आवाज निकलती।।

 

निराश जानवर घूम रहे हैं,

खाने को घास न पात मिले।

है कड़क धूप, गर्मी भीषण,

है जल न, जलाशय सूख चले।।

 

है मोर कहाँ, कोयल गायब,

अब दिखती नहीं  मुस्काने।

नहीं सघन वन दिखते हैं अब,

कहाँ खो गए वनचर जाने।।

 

उँघते-से कभी विपिन थे,

अब तो वे वीरान हो गए।

डर जाते हम जिन्हें देखकर,

ऐसे वन सुनसान हो गए।।

 

हुई कटाई उनकी निर्मम,

हैं बाघ-शेर भयभीत हुए।

सुखी, स्वतंत्र, उन्मुक्त रहे न,

अच्छे दिन  हाय! अतीत हुए।।

 

वनचर कहलाने वाले अब,

अपना उदर न हैं भर पाते।

बदले की अग्नि में जलकर,

बस्ती में उत्पात मचाते।।

 

पर्यावरण हो रहा प्रदूषित,

वर्षा नहीं समय पर होती।

वन ही वर्षा के माध्यम हैं,

वर्षा बिन सूखी भू रोती।।

 

हम कहते पशु हिंसक होता,

पर खुद हिंसक हुए आज हम।

पशु-पक्षी से पेट भर चुका,

तो लगे काटने वन निर्मम।।

 

प्रकृति असन्तुलन बहुत हो चुका,

हाय! विनाश भयंकर  होगा।

जो संरक्षित किये न जंगल,

निश्चित कल प्रलयंकर होगा।।

 

अस्तु,करें संकल्प आज,

पेडों  को नहीं उजाड़ेगे।

वृक्ष लगाएंगे-पालेंगे,

हम पर्यावरण सजायेंगे।।

-शिव नारायण त्रिपाठी आचार्य

ग्राम-चितुहला, पोस्ट-बर्तरा (बुढ़ार)

जिला-शहडोल, मध्यप्रदेश।

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